Skip to main content

Posts

Showing posts from April, 2016

कन्बी/कुनबी/कुर्मी जाति पुंज और गूजर

कन्बी/कुनबी/कुर्मी जाति पुंज और गूजर डा.सुशील भाटी मूल विषय पर आने से पहले भारतीय जाति व्यवस्था के अंग- जनजाति, कबीलाई जाति, जाति, जाति पुंज आदि पर चर्चा आवश्यक हैं| जनजाति ( Tribe) अथवा कबीले का अर्थ हैं एक ही कुल ‘ वंश ’ के विस्तार से निर्मित अंतर्विवाही जन समूह| जनजाति अथवा कबीला एक ही पूर्वज की संतान माना जाता हैं, जोकि वास्तविक अथवा काल्पनिक हो सकता हैं| रक्त संबंधो पर आधारित सामाजिक समानता और भाईचारा जनजातियो की खास विशेषता होती हैं| भील, मुंडा, संथाल, गोंड आदि जनजातियों के उदहारण हैं| कबीलाई जाति ( Tribal caste) वो जातिया हैं, जो मूल रूप से कबीले हैं, किन्तु भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के प्रभाव में एक जाति बन गए, जैसे- जाट, गूजर, अहीर, मेव आदि| इन जातियों को हरबर्ट रिजले ने 1901 की भारतीय जनगणना में कबीलाई जाति ( Tribal caste) कहा हैं| जाति ( Caste) एक अंतर्विवाही समूह के साथ-साथ एक प्रस्थिति ( Status group) और एक व्यवसायी समूह भी हैं| किसी भी अंतर्विवाही समूह का एक पैत्रक व्यवसाय होना, जाति की खास विशेषता हैं| जैसे ब्राह्मण, बनिया, लोहा

पिछड़े वर्ग का वैचारिक दिवालियापन

पिछड़े वर्ग के वैचारिक दिवालिएपन की सबसे सटीक व्याख्या चौधरी चरण सिंह ने की थी। उनके अनुसार पिछड़ा वर्ग किसी जाति का नहीं, बल्कि एक सोच का नाम है। जिस दिन इसकी सोच से पिछड़ापन हट जाएगा, उसी दिन यह कौम अगड़ी हो जाएगी। जिंदा कौमें वैचारिक रूप से स्पंदित होती हैं। उनमें चेतना के लक्षण होते हैं। आत्मश्लाघा, आत्मप्रवंचना की जगह उनमें आत्मालोचना की प्रवृत्ति होती है, भूत के बजाय वर्तमान और भविष्य पर निगाहें होती हैं, परिस्थितियों के अनुसार रणनीति बदलने की क्षमता होती है।चूंकि ये सब पिछड़े वर्ग में नहीं हैं, इसलिए यह एक सोती हुई कौम है। थोड़ा और साफ शब्दों में कहें तो यह एक मरी हुई कौम है, इसलिए इस वर्ग की दशा-दिशा दूसरे लोग अपने मुहूर्त के हिसाब से करते हैं। पिछड़ा उस मुहूर्त में ही अपना शंखनाद करता है। जरा याद करें 1990 का वह दौर, जब वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग लागू किया। पहली बार पिछड़ा वर्ग थोड़ी मात्रा में ही सही, अपने हक-हकूक के लिए लामबंद हुआ। एक वर्ग के रूप में हम एक हैं, हमारी सामाजिक समस्याएं एक हैं और हम एक होकर ही अपनी लड़ाई लड़ सकते हैं- यह अहसास पहली बार कौंधा। लेकिन संघ खेमा इस

पिछड़े वर्ग का वैचारिक दिवालियापन

पिछड़े वर्ग के वैचारिक दिवालिएपन की सबसे सटीक व्याख्या चौधरी चरण सिंह ने की थी। उनके अनुसार पिछड़ा वर्ग किसी जाति का नहीं, बल्कि एक सोच का नाम है। जिस दिन इसकी सोच से पिछड़ापन हट जाएगा, उसी दिन यह कौम अगड़ी हो जाएगी। जिंदा कौमें वैचारिक रूप से स्पंदित होती हैं। उनमें चेतना के लक्षण होते हैं। आत्मश्लाघा, आत्मप्रवंचना की जगह उनमें आत्मालोचना की प्रवृत्ति होती है, भूत के बजाय वर्तमान और भविष्य पर निगाहें होती हैं, परिस्थितियों के अनुसार रणनीति बदलने की क्षमता होती है। चूंकि ये सब पिछड़े वर्ग में नहीं हैं, इसलिए यह एक सोती हुई कौम है। थोड़ा और साफ शब्दों में कहें तो यह एक मरी हुई कौम है, इसलिए इस वर्ग की दशा-दिशा दूसरे लोग अपने मुहूर्त के हिसाब से करते हैं। पिछड़ा उस मुहूर्त में ही अपना शंखनाद करता है। जरा याद करें 1990 का वह दौर, जब वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग लागू किया। पहली बार पिछड़ा वर्ग थोड़ी मात्रा में ही सही, अपने हक-हकूक के लिए लामबंद हुआ। एक वर्ग के रूप में हम एक हैं, हमारी सामाजिक समस्याएं एक हैं और हम एक होकर ही अपनी लड़ाई लड़ सकते हैं- यह अहसास पहली बार कौंधा।